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हरि ॐ। यह ब्लाग हमें सदगुरु श्री अनिरुद्ध बापू (डा. अनिरुद्ध जोशी) के बारें में हिंदी में जानकारी प्रदान करता है।

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युगप्रवर्तक



 
सन 2012 की अनिरुद्ध पूर्णिमा (त्रिपुरारि पूर्णिमा) के सुअवसर पर लगभग 20 लाख श्रद्धावानों ने मुंबई में सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्धजी (बापुजी) के दर्शन किये। केवल मुंबई, महाराष्ट्र और भारत के विभिन्न प्रदेशों में से ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के कईं देशों से श्रद्धावान यहॉं पर पधारे हुए थे। इन श्रद्धावानों में आम लोगों के साथ साथ डॉक्टर, वकील, इंजिनियर, प्राध्यापक, व्यावसायिक आदि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोग भी सम्मीलित थे। सद्‌गुरु बापुजी को "हरि ॐ' कहकर सभी ने अभिवन्दन किया। सद्‌गुरु के दर्शन करने दूर दूर से बड़ी आस्था के साथ यहॉं पर पधारे ये श्रद्धावान बापुजी की एक झलक पाकर फूले नहीं समा रहे थे।
ना तो केसरिया वस्त्र पहना है, ना हाथ में दण्डकमण्डलु हैं, ना गले में कोई माला है, ना हाथ में जपमाला है और ना ही माथे पर चन्दन का तिलक है, इतना ही नहीं, बल्कि "चमत्कार ये सिर्फ़ जादू के खेल हैं' ऐसा साफ़ साफ़ कहनेवालें बापुजी को लाखों सुशिक्षित उच्चविद्याविभूषित भाविक 'सद्‌गुरु' भला क्यों मानते हैं? विभिन्न घटनाओं में इन श्रद्धावानों को प्राप्त हो चुके अनुभवों के कारण वे बापुजी को परमात्मा ही मानते हैं। इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धावानों की उपस्थिति होने के बावजूद भी यह समारोह पूरे अनुशासन के साथ भावपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ, संस्था के सालभर के हर समारोह की तरह ही। बापुजी की एक झलक पाने के लिए सात-सात, आठ-आठ घण्टों तक  शान्तिपूर्वक एवं अनुशासन के साथ कतार में प्रतीक्षा करते हुए, "अनिरुद्धाज्‌ युनिव्हर्सल बॅंक ऑफ रामनाम' की रामनामबही लिखनेवाले, विभिन्न मन्त्र-स्तोत्रों का पाठ करनेवाले इन श्रद्धावानों को देखकर किसी भी अपरिचित व्यक्ति के मन में निश्र्चित ही बापुजी के बारे में जानने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है।
कौन हैं ये अनिरुद्धजी (बापुजी)? प्रचलित तौर पर जिसे आध्यात्मिक कहा जा सके, ऐसा एक भी चिह्न जिनके पास दिखाई नहीं देता, उन्हें ये भाविक भला सद्‌गुरु कैसे मानते हैं? बापुजी के मार्गदर्शन में संस्था के स्वयंसेवक अपनी गृहस्थी, नौकरी-व्यवसाय सॅंभालकर जिस उत्कटता के साथ विभिन्न सेवा उपक्रमों में हिस्सा लेते हैं, उसे देखकर हम हैरान रह जाते हैं। विशेष रूप से प्रचार-प्रसार दिखायी न देने के बावजूद भी आज बापुजी के साथ इतना बड़ा जनसमुदाय क्यों हैं? बापुजी की विचारप्रणाली क्या है? वे क्या करना चाहते हैं? यह सब कार्य वे क्यों कर रहे हैं? ऐसे कईं प्रश्र्न अपरिचित व्यक्ति के मन में उठते हैं।
डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी यानि कि सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्धजी (बापुजी) मुंबई विश्वविद्यालय के एम.डी. (मेडिसीन) हैं और वे  वैद्यकीय व्यवसाय करते हैं। स्वयं एक आदर्श गृहस्थाश्रमी होनेवाले बापुजी, गृहस्थी में रहकर भी परमार्थ की प्राप्ति हो सकती है, इस तत्त्व को स्वयं के आचरण द्वारा दिग्दर्शित करते हैं। अध्यात्म का अर्थ अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागना नहीं है। स्वयं की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़कर, घरगृहस्थी को त्यागकर, बदन पर राख पोत लेना, यह परमार्थ नहीं है। "जिसकी गृहस्थी में खोट, उसके परमार्थ में भी खोट है' इस तत्त्व को बापुजी श्रीसाईसच्चरित के सन्दर्भ द्वारा स्पष्ट करते हैं और मानव को पुरुषार्थी बनाते हैं।
व्यवहारीं पाऊल ठेवितां चौकस।
परमार्थ पावेल अप्रयास।
म्हणूनि प्रपंचीं नसावा आळस।
पुरुषार्थीं उदास असू नये।।
(श्रीसाईसच्चरित अ. 14/27)
(अर्थः व्यवहार में चौकन्ना रहने से परमार्थ की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है। इसीलिए गृहस्थी की जिम्मेदारियों से मुँह मत मोड़िए, पुरुषार्थ करते रहिए।)
बापुजी क्या करना चाहते हैं, वे हमसे क्या अपेक्षा रखते हैं, इन प्रश्र्नों के उत्तर हमें यहॉं पर मिलते हैं। बापुजी हर एक मानव को ओजस्वी पुरुषार्थी बनाना चाहते हैं। धर्म, काम, अर्थ, मोक्ष, भक्ति और मर्यादा इन छः पुरुषार्थों को सिद्ध करना ही मनुष्यजन्म की इतिकर्तव्यता है। गृहस्थधर्म का पालन करते हुए गृहस्थी और परमार्थ दोनों को एकसाथ सफल बनाने के लिए यानि कि मानव को पुरुषार्थी बनाने के लिए बापुजी ने "ग्रन्थराज श्रीमद्‌पुरुषार्थ' को स्वयं की वाणी द्वारा प्रकट किया।
ग्रन्थराज श्रीमद्‌पुरुषार्थ में स्वयं के जीवनकार्य की दिशा को स्पष्ट करते हुए श्रीअनिरुद्धजी ने साफ़-साफ़ कहा है - 
""मेरे प्यारे मित्रों, मैं तुम्हारा मित्र, सखा अनिरुद्ध स्वयं का सिर्फ़ एक ही जीवनकार्य मानता हूँ, संपूर्ण विश्व में इस मर्यादा पुरुषार्थ की साधना एवं सिद्धि करवाना, मर्यादा पुरुषार्थ सिखाना और उसकी स्थापना करना, यही मेरा ध्येय है। "मर्यादा' पुरुषार्थ की सिद्धता एवं उसकी स्थापना के बिना उस मर्यादापुरुषोत्तम का राज्य, रामराज्य नहीं आ सकता है। 
....और इसीलिए "मर्यादा' पुरुषार्थ का रोपण करना, उसे बढ़ाना तथा उसकी देख-भाल करते-करते उसकी अमर्यादित वृद्धि करना यही मेरा सत्यसंकल्प है।''
बापुजी का संवाद हर एक श्रद्धावान के साथ सदैव एक मित्र की भूमिका में ही होता है। बापुजी स्वयं को कभी भी किसी का भी अवतार नहीं कहतें। ग्रन्थराज श्रीमद्‌पुरुषार्थ में स्वयं के हस्ताक्षर के साथ उन्होंने स्पष्ट रूप में कहा है - 
"मैं तुम्हारा मित्र हूँ।'
"मैं किसी का भी अवतार नहीं हूँ। मैं पहले भी अनिरुद्ध ही था, आज भी अनिरुद्ध ही हूँ और कल भी अनिरुद्ध ही रहूँगा।'
"मैं योद्धा हूँ और जिस जिस को अपने प्रारब्ध से लड़ना है, उन्हें युद्धकला सिखाना, यही मेरा शौक है।'
ग्रन्थराज श्रीमद्‌पुरुषार्थ के "सत्यप्रवेश", "प्रेमप्रवास" तथा "आनन्दसाधना" ये तीन खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं और उनके द्वारा एक मित्र की भूमिका में संवाद करते हुए, परमेश्र्वरी मार्ग पर चलकर हम हमारा समग्र जीवनविकास कैसे कर सकते हैं, यह बापुजी ने बड़े ही आसान शब्दों में स्पष्ट किया है। "आप चाहे मुझे कुछ भी नाम दें, लेकिन मैं स्वयं को आपका एक मित्र ही मानता हूँ - ऐसा मित्र, जो कभी भी धो़खा न दे, जो हमेशा आपको खुश देखना चाहे ।' यही बापुजी की भूमिका है।
"धर्म' इस पुरुषार्थ को स्पष्ट करते हुए बापुजी हमेशा कहते हैं कि पवित्रता का अधिष्ठान होनेवाले, "पवित्रता ही प्रमाण है' इस तत्त्व की नींव पर स्थित सत्य, प्रेम और आनन्द ये परमेश्र्वरीय मूल्य ही दर असल धर्म है। "मर्यादामार्ग' ही मानवधर्म को परमेश्र्वरीय ऐश्र्वर्य की प्राप्ति कराता है' यह श्रीअनिरुद्धजी ने श्रीमद्‌पुरुषार्थ में कहा है।
सभी भारतीय सन्तों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति के समन्वयशील भक्तिमार्ग का ही उपदेश किया है। आत्यंतिक निवृत्तिवाद एवं ऐहिक स्वार्थ से जुड़ा प्रवृत्तिवाद इन दोनों एकांतिक बातों के कारण व्यक्तिगत जीवन और समाज में असामंजस्य निर्माण होता है। विज्ञान और अध्यात्म परस्परविरोधी नहीं है, बल्कि परस्परपूरक ही हैं। उनके समन्वय द्वारा ही मानवसमाज का विकास हो सकता है, यह बात बापुजी ़जोर देकर कहते हैं। श्रीसाईसच्चरित इस श्रेष्ठ ग्रन्थ पर आधारित "पंचशील परीक्षा' की शुरुआत बापुजी ने की और उसमें भी भक्तितत्त्वों को विज्ञान के प्रात्यक्षिकों (प्रॅक्टीकल्स) द्वारा स्पष्ट करके समन्वय के मध्यममार्ग को स्वयं ही दिग्दर्शित किया है।
श्रीमद्‌पुरुषार्थ में श्रीअनिरुद्धजी ने स्वयं के पंचगुरुओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहा है, "दत्तगुरु मेरे करविता (करवानेवाले) गुरु हैं, गायत्रीमाता मेरी वात्सल्य गुरु हैं, श्रीराम मेरे कर्ता गुरु हैं, श्रीहनुमानजी मेरे रक्षक गुरु हैं और श्रीसाईनाथजी मेरे दिग्दर्शक गुरु हैं।' समर्थ रामदास स्वामीजी की "मनाचे श्लोक' (मनोबोध),  भीमरूपी महारुद्रा (हनुमानजी का) स्तोत्र, दासबोध इन रचनाओं के साथ साथ सन्तश्रेष्ठ श्रीतुलसीदासजी की सुन्दरकाण्ड, हनुमानचलीसा, संकटमोचन हनुमानाष्टक इन रचनाओं के महत्त्व को श्रीअनिरुद्धजी बार बार प्रतिपादित करते रहते हैं। बापुजी के साथ शिरडी, अक्कलकोट (श्रीस्वामी समर्थ महाराज की पावन भूमि), देहू (सन्त तुकारामजी की पावन भूमि)-आळंदी (सन्त ज्ञानेश्र्वरजी की पावन भूमि), गोवा (मंगेश-शांतादुर्गा) ये रसयात्राएँ तथा पंढरपुर की भावयात्रा कर चुके श्रद्धावानों ने भक्ति की अविस्मरणीय अनुभूतियॉं प्राप्त की हैं। बापुजी के घर के गणेशोत्सव में लाखों की संख्या में भाविक सम्मीलित होते हैं और गणपतिविसर्जन की भव्य शोभायात्रा यह तो भक्तिरस की बहती गंगा ही होती है।
मांगल्यमय एवं पवित्रतापूर्ण तीर्थस्थलों की यात्रा करना, वहॉं पर विभिन्न उपासनाएँ करना, इनका भारतीय समाजमन को प्राचीन समय से ही काफ़ी आकर्षण रहा है। आदर्श तीर्थक्षेत्र की मिसाल के तौर पर बापुजी के मार्गदर्शन में जुईनगर-गुरुकुल, कर्जत-कोठिंबे गॉंव में गोविद्यापीठम्‌, रत्नागिरी-अतुलितबलधाम और धुळे-निम्बगॉंव में सद्‌गुरु पुण्यक्षेत्रम्‌ इन तीर्थक्षेत्रों की स्थापना की गयी। श्रीसाईसच्चरितकार (शिरडी के साईबाबा की आज्ञा से बाबा का जीवनचरित्र लिखनेवालें) हेमाडपन्तजी के "साईनिवास' इस मुंबई-वांद्रे स्थित निवासस्थान में श्रीअनिरुद्धजी ने हेमाडपन्तजी के पोते सद्यःपिपा आप्पासाहब दाभोलकरजी और उनकी धर्मपत्नी मीनावैनी के हाथों श्रीसाईनाथजी की ध्यानमूर्ति की स्थापना करवायी। मुंबई-खार स्थित श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम्‌ यह तो श्रद्धावानों का परमोच्च तीर्थस्थल है, मानो तीर्थों का मुकुटमणि।
"निःस्वार्थ प्रेम' यह श्रीअनिरुद्धजी का मूलभूत गुणधर्म है, इस बात का एहसास उनके संपर्क में आनेवाले हर एक व्यक्ति को होता ही है। श्रीअनिरुद्धजी किसी से भी किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। अन्य किसी अवसर पर ही नहीं, बल्कि गुरुपूर्णिमा को भी बापुजी किसीसे भी किसी भी उपहार आदि का स्वीकार नहीं करतें। यहॉं तक कि बापुजी के प्रवचन में उपस्थित रहनेवाले किसी भी व्यक्ति के लिए बापुजी को प्रणाम करना भी अनिवार्य नहीं है। गृहस्थधर्म का पालन करते हुए भी भक्तिमार्ग पर प्रगति कैसे की जा सकती है, इसका मार्गदर्शन बापुजी सरल शब्दों में बड़ी सहजता से करते हैं।
हर गुरुवार को बापुजी गुरुचरित्र के चौदहवें अध्याय का सबके साथ पाठ करते हुए श्रीदत्तात्रेयजी का पूजन भी करते हैं। उसके बाद सबके साथ "आराधनाज्योति' उपासना भी करते हैं और श्रद्धावानों के साथ सामूहिक गजर (नामसंकीर्तन) में भी सम्मीलित होते हैं। आनेवाले विपरिततम कालखंड का यशस्वी रूप से मुकाबला करते हुए उसमें भी श्रद्धावान अपना जीवनविकास कर सकें, इस उद्देश्य से श्रीअनिरुद्धजी ने "आराधनाज्योति' इस उपासना की शुरुआत की है, क्योंकि बापुजी का कहना है कि भक्ति ही परमोच्च शक्ति है। आनेवाले विकट कालचक्र के बारे में अपने मित्रों को ठीक वक़्त पर सतर्क कर उन्हें सुसज्जित बनाने के उद्देश्य से बापुजी ने "तृतीय महायुद्ध' (तीसरा विश्वयुद्ध)  यह पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक मह़ज एक भविष्यकथन नहीं है, बल्कि इतिहास तथा वर्तमान के अध्ययन द्वारा एक दूरदर्शी अध्ययनकर्ता ने प्रस्तुत किया हुआ भविष्यकाल का लेखाजोखा ही है।
इस पुस्तक में पहले दो विश्वयुद्धों की सकारण मीमांसा, युद्ध इस संकल्पना का स्पष्टीकरण, वर्तमान घटनाक्रम के आधार पर तृतीय विश्वयुद्ध का सकारण पर्यवेक्षण, जैविक-रासायनिक शस्त्रास्त्र (बायॉलॉजिकल-केमिकल वेपन्स), विभिन्न युद्धप्रकार आदि कईं मुद्दों का समावेश किया गया है। इसवीसन 2006 की दत्तजयन्ती (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मराठी और अंग्रे़जी में प्रकाशित हुई इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है।  इस पुस्तक को पढ़ने पर यह बात पाठक की समझ में आ जाती है कि इस पुस्तक में वर्णित कईं घटनाओं के प्रमाण गत कुछ महीनों में हमें प्राप्त हुए हैं, फिर चाहे वह चीन की टेढ़ी चाल हो, आखाती प्रदेश की घटनाएँ हों या फिर अन्य घटनाक्रम हो।
तृतीय विश्वयुद्ध के भयानक कालखंड का मुकाबला करने के लिए हर एक श्रद्धावान को सभी स्तरों पर समर्थ बनाना अत्यावश्यक है। "बचाव अर्थात्‌ पराभव, आक्रमण ही सर्वोच्च बचाव है' (डिफेन्स इज डिफीट अँड ऍटॅक इज द बेस्ट वे ऑफ डिफेन्स) इस प्राचीन भारतीय बलविद्या के सूत्र को केन्द्रबिन्दू मानकर श्रीअनिरुद्धजी ने प्राचीन भारतीय बलविद्या, मुद्‌गलविद्या एवं सूर्यभेदनविद्या इन्हें पुनरुज्जीवित किया। साथ ही "इस तृतीय विश्वयुद्ध के कालखंड में विभिन्न प्रकार की मानवनिर्मित तथा प्राकृतिक आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा और इन आपत्तियों से स्वयं की तथा दूसरो की भी रक्षा करने आपातकालीन व्यवस्थापन का प्रशिक्षण मेरे हर एक मित्र को लेना ही चाहिए', इस उद्देश्य से श्रीअनिरुद्धजी ने "अनिरुद्धाज्‌ ऍकॅडमी ऑफ डिझास्टर मॅनेजमेंट' (ए.ए.डि.एम.) की स्थापना की।

श्रीअनिरुद्धजी द्वारा 3 अक्तूबर 2002 को प्रस्तुत की गयी 13 कलमों की योजनाओं में से यह एक योजना है, जिसके द्वारा सभी को आपातकालीन व्यवस्थापन का प्रशिक्षण निःशुल्क रूप से दिया जाता है। इस प्रशिक्षण में विभिन्न बचाव पद्धतियॉं (रेस्क्यू मेथड्‌स्‌), सी.पी.सी.आर्‌. टेक्निक्स जैसी बातों का समावेश किया गया है। विभिन्न आपातकालीन परिस्थितियों में आज तक ए.ए.डि.एम. के स्वयंसेवकों ने (डि.एम.व्ही.ज्‌ ने) बहुमूल्य योगदान दिया है। 26 जुलाई 2005 की मुंबई की भारी बरसात और साकीनाका की भूस्खलन (लॅंडस्लाईड) की घटना हो, 11 जुलाई 2006 के मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए बम धमाकें हों या 2 दिसम्बर 2002 को घाटकोपर में हुई बमविस्फोट की घटना हो, ए.ए.डि.एम. के डि.एम.व्ही.ज्‌ मददकार्य में अग्रसर रहें है। प्रतिवर्ष मुंबई के गणेशोत्सव विसर्जन की शोभायात्रा में भीड़-नियन्त्रण के कार्य में संस्था के डि.एम.व्ही.ज्‌ सहभागी होते हैं, मांढरदेवी, ज्योतिबा इन क्षेत्रों की वार्षिक यात्राओं में, नासिक के कुंभमेले में डि.एम.व्ही.ज्‌ ने भीड़-नियन्त्रण के काम में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।
साकीनाका की भूस्खलन (लॅंडस्लाईड) की घटना
13 कलमों की योजना के साथ श्रीअनिरुद्धजी के मार्गदर्शन में कईं भक्तिपूर्ण सेवा-उपक्रमों को संचालित किया जाता है। गत आठ वर्षों से कोल्हापुर-करंजफेण में सफाई एवं स्वास्थ्य अभियान चलाया जा रहा है। गत वर्ष (2012 में) लगभग 15900 छात्रों एवं ग्रामवासियों के स्वास्थ्य का परीक्षण कर उन्हें आवश्यक दवाइयॉं प्रदान की गयीं। लगभग 9281 ग्रामवासियों ने इस शिविर का लाभ उठाया। ़जरूरतमन्दों को लगभग 2500 चष्में भी दिये गये। इस शिबिर में मरी़जों के ई.सी.जी., एक्स-रे आदि परीक्षण निःशुल्क रूप से किये गये और दन्तचिकित्सा सेवा भी निःशुल्क रूप से प्रदान की गयी। साथ ही कुल 7634 छात्रों के स्वास्थ्य की जॉंच कर शालेय उपयोगी वस्तुएँ, युनिफॉर्म (हर एक छात्र को 2 का सेट, इस प्रकार से कुल 15560), क्रीडासाहित्य, टोपियॉं, स्लीपर्स आदि वस्तुओं को विनामूल्य वितरित किया गया, जिससे उन्हें स्कूल जाने में किसी भी प्रकार की परेशानियों का सामना न करना पड़े। छात्रों में वितरित किये गये युनिफॉर्म 13 कलमी योजना की वस्त्र योजना (चरखा योजना) के अन्तर्गत स्वयंसेवकों द्वारा स्वयं चरखा चलाकर निकाले गये सूत से बनाये गये थे। सन 2012 तक लगभग 5567 चरखों द्वारा 2,94,986 मीटर कपड़े का निर्माण कर उससे बने 1,15,428 युनिफॉर्म्स 57664 ़जरूरतमन्द छात्रों को संस्था द्वारा निःशुल्क रूप से प्रदान किया गया है।
"अन्नपूर्णाप्रसादम्‌' योजना के अन्तर्गत ग्रामीण, आदिवासी विभागों के स्कूली छात्रों को रो़ज दोपहर का भोजन निःशुल्क रूप में प्रदान किया जाता है। स्वयंसेवक स्वयं खाना पकाकर बच्चों को बड़े प्यार से परोसते हैं। ऊपरोक्त शिबिर में भी इस योजना के अन्तर्गत लगभग 47,000 छात्रों एवं ग्रामवासियों को महाप्रसाद (भोजन) का लाभ मिला। इतने लोगों का भोजन स्वयंसेवकों ने स्वयं पकाकर बड़े प्यार से सबको परोसा।
गणपतिजी की मूर्तियॉं बनाते हुए स्वयंसेवक

पर्यावरणसुरक्षा की दृष्टि से संस्था के "इको-फ्रेंडली गणपति' इस अभिनव उपक्रम के अन्तर्गत, श्रद्धावानों द्वारा लिखी गयीं रामनाम की बहियों के काग़जों की लुगदी से गणपतिजी की मूर्तियॉं स्वयंसेवक स्वयं बनाते हैं। इस वर्ष (2012 में) ५७६० गणेशभक्त इको फ्रेंडली गणेशमूर्तियों से लाभान्वित हुए।
अन्य सेवा-उपक्रमों के अन्तर्गत, संस्था के द्वारा कुष्ठरोगपीड़ित रुग्णों की बस्तियों में अनाज, कपड़े, दवाइयॉं और उनके बच्चों केलिए स्कूली साहित्य के साथ साथ प्रतिदिन की आवश्यक वस्तुओं को बॉंटा जाता है और निर्वाह के साधनों के बारे में मार्गदर्शन किया जाता है। साथ ही मतिमन्द बच्चों की संस्थाओं तथा मनोरुग्णालयों में जाकर रुग्णों की सेवाशुश्रुषा करना, दुर्गम और उपेक्षित प्रदेशों के ़जरूरतमन्द भाईबहनों को जीवनोपयोगी वस्तुएँ, पाठ्यपुस्तकें वितरित करना इन उपक्रमों को भी संस्था द्वारा संचालित किया जाता है।
सन 2005-2006 में पुणे जिले के पुरन्दर तालुके की घोरपडे बस्ती के  400-500  अकालपीड़ित मवेशियों को लगातार चार महीनों तक एक ट्रक भरकर चारे की आपूर्ति "चारा योजना' के अन्तर्गत की जा रही थी। ठीक वक़्त पर किये गये इस सेवाकार्य के कारण 400-500 अकालपीड़ित मवेशियों की भूखमरी का संकट टल गया। इस बस्ती को पुनः सूखे का सामना न करना पड़े, इस उद्देश्य से उसी वर्ष संस्था के स्वयंसेवकों की मेहनत से वनीय बॉंध का निर्माण किया गया, जिससे ग्रामवासियों को काफ़ी राहत मिली। 13 कलमों के कार्यक्रम की "जुने ते सोने' (पुराना, मग़र फिर भी सोना) इस योजना के अन्तर्गत पुरन्दर तालुके में सर्वेक्षण कर ़जरूरतमन्दों को विभिन्न प्रकार की जीवनावश्यक वस्तुओं का वितरण निःशुल्क रूप से किया गया।
इन सेवा उपक्रमों को कार्यान्वित करते हुए बापुजी ने स्वयंसेवकों को स्पष्ट रूप में कहा है कि भक्ति ही सेवा का हृदय है। हम डिव्होशनल सर्व्हिस (भक्तिमय सेवा) कर रहे हैं, इस बात का ध्यान हमेशा रखना ही चाहिए। भक्ति यह शब्द "भज्‌ सेवायाम्‌' इस धातु से बना है। दरअसल भक्ति का अर्थ है, प्रेमपूर्वक, आत्मीयता के साथ की गयी सेवा। बिना सेवा के भक्ति को पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती और बिना भक्ति  के सच्ची सेवा नहीं हो सकती। भक्ति के कारण सेवा का अहंकार नहीं आता, यह तत्त्व श्रीअनिरुद्धजी प्रतिपादित करते हैं।
"पहले स्वयं किया, फिर दूसरों को बताया' इस वचन के अनुसार बापुजी हर बात पहले स्वयं करते हैं और उसके बाद ही औरों से कहते हैं। बापुजी हररोज स्वयं चरखा चलाते हैं, रामनाम की बही लिखते हैं, एक घण्टा चलने का व्यायाम करते हैं, उनके बच्चों को पढ़ाते हैं, श्रीसाईसच्चरित के एक अध्याय का तथा गुरुचरित्र के दो अध्यायों का पाठ करते हैं, विष्णुसहस्रनाम का, श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का, श्रीरामरसायन ग्रन्थ का, दत्तबावनी का, वासुदेवानंद सरस्वतीविरचित "दत्तमाहात्म्य' इस ग्रन्थ के एक अध्याय का, रामरक्षास्तोत्र का पाठ करते हैं।
बापुजी ने बार बार यह स्पष्ट रूप से कहा है, "यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो मुझे रामनाम का जाप दीजिए, रामरक्षास्तोत्र का जाप दीजिए। मैं आपकी इस अमानत को मेरे दत्तगुरु के बॅंक में रखूँगा, मेरे लिए नहीं, बल्कि आप ही के लिए, आपको ही जब सचमुच इसकी जरूरत होगी, तब ये आपके काम आ सके, इसलिए। आपका वक़्त दीजिए, आपका परिश्रम दीजिए, जरूरतमन्द भाईबहनों की सेवा के लिए, भगवान की उपासना के लिए। चौबीस घण्टों में से कम से कम चौबीस मिनट तो भगवान की भक्ति करने के लिए आपको देने चाहिए। अन्त में यही काम आनेवाला है। आनेवाले तृतीय विश्वयुद्ध के भयंकर कालखण्ड में भक्तिसेवा की यह जमापूँजी ही तारक बननेवाली है। भक्ति करना यह वीरों का काम है, बु़जदिलों का नहीं। हम भक्तिमार्गीय हैं, इसलिए हम अव्यवस्थित रहेंगे, दुनियादारी की हमें कोई जरूरत नहीं है, यह कहना सरासर ग़लत है। आधुनिक तन्त्रज्ञान, विज्ञान, दुनियादारी तथा आधुनिक युग की मॉंग के अनुसार ठीकठाक रहन-सहन, समय के साथ साथ आगे बढ़ते रहना भी जरूरी है।"
"तृतीय महायुद्ध' इस पुस्तक की प्रस्तावना में श्रीअनिरुद्धजी स्पष्ट करते हैं, "अगले लगभग बीस-पच्चीस वर्षों तक संघर्ष ही इस पृथ्वी पर हर एक स्थान का दैनिक व्यवहार होनेवाला है, इसमें शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है। इस आनेवाले समय में, आज के समीकरण का कल तक बने रहना मुश्किल है। सुबह सात बजे के समीकरण को सुबह सात बजकर पॉंच मिनट पर, मूल हेतु के साध्य होते ही उखाड़कर फेंक दिया जाएगा। हर वर्ष कॅलेण्डर (दिनदशिर्र्का) प्रकाशित होता है, क्योंकि उसके पीछे एक निश्चित स्वरूप का गणितीय सूत्र एवं रचना होती है; लेकिन इस आगामी "तृतीय महायुद्ध' का कॅलेण्डर हर रोज नया होगा।"
तीसरे विश्वयुद्ध में भारत की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहनेवाली है, यह श्रीअनिरुद्धजी ने तृतीय महायुद्ध इस पुस्तक में स्पष्ट किया ही है। श्रीअनिरुद्धजी कहते हैं, "सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तृतीय महायुद्ध के बाद बचे हुए जग को सभी दृष्टि से तारने का और उसके पुनर्वसन का कार्य नियति ने शायद भारत की ही कुंडली में लिखा हो, ऐसा लगता है।"
श्रीअनिरुद्धजी को इसपर पूरा भरोसा है कि विघातक शक्ति चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, लेकिन पवित्र विधायक शक्ति के सामने वह तिनके जितनी भी नहीं है और परमेश्र्वरीय मूल्यों के अनुसार नीतिमान विधायक कार्य करने के लिए वे हमेशा कटिबद्ध हैं। सभी श्रद्धावानों को साथ लेकर समन्वय मार्ग द्वारा इस संघर्ष के पार पूरी दुनिया को ले जाने के लिए एक मित्र की भूमिका में श्रीअनिरुद्धजी निरन्तर कार्यरत हैं ही....एक नये युग की शुरुआत करने के लिए....जो युग होगा....प्रेम का! मानवधर्म का! मित्रता का!
नये युग की पौ फटने के सुनहरे ख्वाब को स्वयं की अनिमिष आँखों में जतन कर रखनेवाले और उसे हक़ीकत बनाने के लिए अथक परिश्रम करनेवाले इस युगप्रवर्तक का निदिध्यास ही है....
इस संपूर्ण संसार को सुखी बनाऊँगा।
आनंद से ओत-प्रोत होंगे तीनों ही लोक।।
                                                                                               - डॉ. योगीन्द्रसिंह जोशी